गीता का उपदेश

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गीता का उपदेश
गीता का उपदेश

गीता का उपदेश- इस आर्टिकल में आज SSCGK आपसे गीता का उपदेश नामक विषय के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे। इससे पहले आर्टिकल में आप देव यज्ञ विधि के बारे में विस्तार से पढ़ चुके हैं।

गीता का उपदेश-

भूमिका – महाभारत के युद्ध के दौरान जब अर्जुन अपने सामने युद्ध के मैदान में अपने सगे संबंधियों को देखकर मोह में पड़ गया और उसने उनसे युद्ध न करने की ठान ली अर्थात युद्ध न करने का मन बना लिया।वह कहने लगा कि अगर मैं अपने सगे संबंधियों को युद्ध में मारूंगा तो मैं पापग्रस्त हो जाऊंगा अर्थात मुझे सगे संबंधियों को मारने का पाप लगेगा। अगर युद्ध के मैदान में मैं जीत भी गया तो जीत के कारण मिले हुए साम्राज्य को लेकर क्या करूंगा। वह भगवान श्रीकृष्ण से कहने लगा कि मैं अपने सगे संबंधियों से नहीं युद्ध करूंगा। अपने सगे संबंधियों के मोह में फंसे हुए अर्जुन का मोह भंग करने के उद्देश्य से ही भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश देने का निश्चय किया ताकि अधर्म का विनाश हो सके और धर्म की जीत हो सके।

Geeta Ka Updesh:-

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥…..1.

सरलार्थ- महाभारत के युद्ध के दौरान भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए कहते हैं कि हे अर्जुन! तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके (कर्म फल की) फल की इच्छा करना तेरा अधिकार नहीं है। तू कर्मों के फल का कारण अर्थात चाहने वाला मत बन। और न ही तेरी आसक्ति कर्म न करने में हो।

भावार्थ- हमें जीवन में नि:स्वार्थ भाव से कर्म (कार्य) करने चाहिए।

योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।…..2

सरलार्थ- हे अर्जुन! इच्छा/कामना को त्याग कर सफलता और असफलता को एक समान मान कर तू अपने कर्म के प्रति एकाग्रचित्त रह | चाहे कर्म का कोई फल मिले या न मिले – मन की इन दोनों ही  अवस्थाओं में जब व्यक्ति का मन एक समान रहता है  उसी स्थिति को कर्म योग कहते हैं | कर्म में कुशलता  तभी आती है, जब व्यक्ति मन और बुद्धि को अन्य जगह से हटाकर एक विषय पर अपने मन मस्तिष्क को केन्द्रित कर देता है।

न जायते म्रियते वा कदाचित अयम्, भूत्वा भविता वा ना भुवा,
अजो नित्य, शाश्वतो अयं पुराणों न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।…..3.

सरलार्थ:- भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए कहते हैं कि हे अर्जुन! शरीर के मारे जाने पर भी यह आत्मा नहीं मरती, आत्मा का न तो जन्म होता है और ना ही मृत्यु होती है। शरीर का जन्म होता है और शरीर की ही मृत्यु होती है। इसलिए आत्मा का न तो जन्म होता है न मरण होता है। आत्मा तो अनादि और अमर है।

गीता का उपदेश-

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।…..4.

सरलार्थ:- भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए कहते हैं कि हे अर्जुन! जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है।

नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:॥…..5.

सरलार्थ:- भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए कहते हैं कि हे अर्जुन! आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे गीला कर सकता है अर्थात भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है। इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने आत्मा के अजर-अमर और शाश्वत होने की बात की है।

गीता के उपदेश:-

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।…..6.

सरलार्थ- भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए कहते हैं कि हे अर्जुन! क्योंकि जन्म लिए हुए व्यक्ति की मृत्यु होनी निश्चित है और मरे हुए व्यक्ति का जन्म होना निश्चित है । इसलिए  इस बिना उपाय वाले विषय के बारे में तू शोक करने को योग्य नहीं है ।

हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्।
तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥…..7.

सरलार्थ: –महाभारत के युद्ध के दौरान भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए कहते हैं कि हे अर्जुन! यदि तुम युद्ध में मारे गए तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा और अगर जीत गए, तो तुम्हें धरती का सुख मिलेगा। इसलिए हे अर्जुन‌ उठो, और निश्चय करके युद्ध करो।

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥…..8.

सरलार्थ: -भगवान श्री कृष्ण गीता का उपदेश देते हुए कहते हैं कि हे अर्जुन! विषय-वस्तुओं के बारे में सोचते रहने से, मनुष्य की उनमें आसक्ति हो जाती है। इससे उसकी उनमें इच्छा पैदा होती है और कामनाओं में विघ्न आने से क्रोध की उत्पत्ति होती है। इसलिए हे अर्जुन। इस अवस्था में व्यक्ति को विषयों में आसक्ति से दूर रहते हुए कर्म करने की कोशिश करनी चाहिए ।

गीता का उपदेश:-

क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥…..9.

सरलार्थ:- भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन! क्रोध से मोह पैदा होता है अर्थात क्रोध से मनुष्य की मति मारी जाती है । मोह से स्मृति भ्रमित हो जाती है। स्मृति-भ्रम हो जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य खुद अपना ही का नाश कर बैठता है।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥…..10.

सरलार्थ:-भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए कहते हैं कि हे भारत (अर्जुन), जब-जब धर्म की ग्लानि अर्थात हानि होती है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं श्रीकृष्ण धर्म के अभ्युत्थान के लिए अर्थात धर्म की स्थापना के लिए स्वयं की रचना करता हूं अर्थात अवतार लेता हूं।

परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥…..11.

सरलार्थ: भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए कहते हैं कि हे अर्जुन! सीधे साधे लोगों के कल्याण के लिए और दुष्कर्मियों के विनाश के लिए एवं धर्म की स्थापना के लिए मैं (श्रीकृष्ण) युगों-युगों से प्रत्येक युग में जन्म लेता आया हूं।

गीता का उपदेश:-

श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥…..12.

सरलार्थ:- भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए कहते हैं कि हे अर्जुन! श्रद्धा रखने वाले मनुष्य, अपनी इन्द्रियों पर संयम रखने वाले मनुष्य, अपनी तत्परता से ज्ञान प्राप्त करते हैं, फिर ज्ञान मिल जाने पर जल्द ही परम-शान्ति को प्राप्त होते हैं।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥…..13.

सरलार्थ: भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए कहते हैं कि हे अर्जुन! तुम सभी धर्मों को़ त्याग कर अर्थात हर आश्रय को त्याग कर केवल मेरी शरण में आओ, मैं (श्रीकृष्ण) तुम्हें सभी पापों से मुक्ति दिला दूंगा, इसलिए शोक मत करो।

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥……14.

सरलार्थ:-भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि अर्जुन! श्रेष्ठ व्यक्ति जैसा-जैसा आचरण यानी जो-जो काम करते हैं, दूसरे आम इंसान भी वैसा ही आचरण करने लग जाते हैं अर्थात वैसा ही काम करते हैं। श्रेष्ठ पुरुष जो प्रमाण या उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, सारे लोग उसी का अनुसरण करने लग जाते हैं।