पवन की परिभाषा एवं प्रकार

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पवन की परिभाषा एवं प्रकार
पवन की परिभाषा एवं प्रकार

पवन की परिभाषा एवं प्रकार:-इस आर्टिकल में आज SSCGK आपसे पवन की परिभाषा एवं प्रकार के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे। इससे पहले कोर्ट में आर्टिकल में आप हिमस्खलन का अर्थ प्रकार व कारण के बारे में विस्तार से पढ़ चुके हैं।

पवन की परिभाषा एवं प्रकार:-

जैसा कि आप सभी जानते ही हैं की वायु उच्च वायुदाब की ओर से निम्न वायुदाब की ओर गमन करती है।
इसी बहती हुई गतिशील वायु को पवन  कहते हैं। गतिशील वायु की यह गति पृथ्वी की सतह के लगभग
समानांतर रहती है।हमारे आसपास के वायुमंडल में मौजूद हवा में 78% नाइट्रोजन, 21% ऑक्सीजन और
बाकी 1% अन्य  गैसें होती हैं। इस प्रकार पृथ्वी से कुछ मीटर ऊपर तक गतिशील वायु को सतही पवन
और 200मीटर या अधिक ऊँचाई पर गतिशील वायु को उपरितन पवन कहते हैं।

पवन दिशासूचक यन्त्र-वर्तमान समय में वेधशालाओं में पवनदिक्सूचक नामक उपकरण का प्रयोग हवा
की दिशा बताने के लिए किया जाता है। इस यंत्र का नुकीला सिरा हमेंशा उस दिशा में रहता है जिधर से हवा
आ रही होती है। पवन की गति/वेग मील प्रति घंटे, या मीटर प्रति सेकंड, में व्यक्त किया जाता है। सतह की
पवन को मापने के लिए प्राय: प्याले के आकार का पवनमापी काम में आता है। पवन की रफ्तार का लगाता
र अभिलेख करने के लिए अनेक उपकरण काम में आते हैं, जिनमें दाबनली एवं पवनलेखक महत्वपूर्ण एवं प्रचलित हैं।

पवन की परिभाषा एवं प्रकार:-

अलग-अलग/विभिन्न ऊँचाई के उपरितन पवन का निर्धारण करने के लिए हाइड्रोजन से भरा गुब्बारा उड़ाया
जाता है और ऊपर उठते हुए तथा पवनहित बैलून की ऊँचाई और दिगंश  ज्ञात करने के लिए इसका निरीक्षण
सामान्य थियोडोलाइट या रेडियो थियोडोलाइट से करते हैं और तब बैलून की उड़ान का प्रक्षेपपथ  तैयार किया
जाता है और प्राय: बैलून के ऊपर उठने के वेग की दर की कल्पना करके, प्रक्षेपपथ के विभिन्न बिंदुओं से बैलून
की संगत ऊँचाई की गणना की जाती है। प्रक्षेपपथ से, इच्छित ऊँचाई पर, पवन की चाल और दिशा ज्ञात की जाती है।

Pawan ki Paribhasha avm Prakar:-

बोफर्ट का पवन मापक्रम– बोफर्ट का पवन मापक्रम का पूरा नाम ‘बोफर्ट पवनवेग मापक्रम है।यह पवनवेग और
समुद्र तथा स्थल की दशाओं के बीच सम्बन्ध बताने वाला एक आनुभविक तालिका है। इसे फ्रांसिस बोफर्ट द्वारा
1805 में सुझाया गया था।फ्रांसिस बोफर्ट आयरिश रॉयल नेवी में अफसर थे।

कॉरिऑलिस बल-पृथ्वी के घूर्णन के कारण पवनें अपनी मूल दिशा में विक्षेपित हो जाती हैं। इस बल को कॉरिऑलिस

बल कहते हैं। इस बल के प्रभाव का वर्णन फ्रांसीसी वैज्ञानिक ने 1835 में किया था।

 Pawan ki Paribhasha avm Prakar:-

पवनों के प्रकार- पवनें मुख्यत: चार प्रकार की होती हैं-

No.1.-स्थाई पवनें

No -2.स्थानीय पवनें

No.3.-मौसमी पवन और दैनिक पवनें

No.4.-जेट वायु धारा

No.1.-स्थाई पवनें– स्थाई पवनों को वायुमंडल का प्राथमिक परिसंचरण भी कहा जाता है। ये पवनें आधारभूत
पवने  होती हैं। इन पवनों को प्रचलित पवनें भी कहा जाता है। ये पवनें क्षैतिज रूप से प्रवाहित होती रहती हैं। ये
पवनें पृथ्वी की घूर्णन गति के प्रभाव से विकसित हो जाती हैं। इन पवनों का विकास अस्थाई वायुदाब पेटियों में
उच्च वायुदाब से निम्न वायुदाब की दिशा में होता है।

पवन की परिभाषा एवं प्रकार:-

स्थाई पवनों के प्रकार- स्थाई पवनें तीन प्रकार की होती हैं, जिनका वर्णन निम्नलिखित है:-

नं.1.-व्यापारिक पवनें

नं.2-.पछुआ पवनें

नं.3.-ध्रुवीय पवनें

नं.1.-व्यापारिक पवनें- व्यापारिक पवनें दक्षिणी अक्षांश के उपोष्ण उच्च वायुदाब कटिबंध से भूमध्यरेखीय निम्न वायुदाब कटिबंध की ओर दोनों गोलाद्धों में सारा साल प्रवाहित होती रहती हैं । इसी कारण इन पवनों को व्यापारिक पवन कहते हैं।  सारा साल यह पवनें एक ही दिशाा में लगातार बहती रहती हैं। ये पवनें फेरल के नियम के अनुसार उत्तरी गोलाद्ध में अपनी दाएं और और दक्षिणी गोलाद्धों में अपनी बाई और प्रवाहित होती हैं।

इन पवनों को ‘पुरवाई पवन ‘भी कहा जाता है। इन पवनो से प्राचीन काल में  व्यापारियों को बहुत लाभ मिलता था।इन पवनों से व्यापारियों को उनके पालयुक्त पानी के जहाज़ों को चलाने में काफी मदद मिलती थी। इसी कारण से इस प्रकार की पवनों को व्यापारिक पवन कहा जाता है।

पवन की परिभाषा एवं प्रकार:-

नं.2.-पछुआ पवनें- पछुआ पवनें पश्चिम दिशा से पूर्व दिशा की ओर चलती हैं। ये पवनें व्यापारिक पवनों की विपरीत दिशा में पश्चिम से पूरब की दिशा में चलती हैं।इन पवनों की दिशा उत्तरी गोलार्द्ध में  दक्षिण पश्चिम से उत्तर पूर्व की ओर और दक्षिणी गोलार्द्ध में उत्तर पश्चिम से दक्षिण पूर्व की ओर होती है। ये पवनें दोनों गोलाद्धों में उपोष्ण उच्च वायुदाब (30 डिग्री से 35 डिग्री) कटिबंधों से उपध्रुवीय निम्न वायुदाब (60 डिग्री से 65 डिग्री) कटिबंधों की ओर चलने वाली स्थाई पवनें है।

इन पवनों का सबसे अच्छा विकास 40 डिग्री से 65 डिग्री दक्षिणी अक्षांश के मध्य पाया जाता है, क्योंकि यहां पर जल अधिक मात्रा में पाया जाता है। इसी कारण से पछुआ पवनें तेज और निश्चित दिशा में बहती हैं। दक्षिण गोलार्द्ध में इनकी प्रचंडता के कारण 40 से 50 डिग्री दक्षिणी अक्षांश के बीच इन्हें “चीखती चालीसा”, 50 डिग्री दक्षिणी अक्षांश के समीपवर्ती इलाकों में “प्रचंड पचासा” और 60 डिग्री दक्षिणी अक्षांश के पास “चीखता साठा” नाम से जाना जाता है।

पवन की परिभाषा एवं प्रकार:-

नं.3.-ध्रुवीय पवनें- ध्रुवीय पवनें बहुत ठंडी होती हैं तथा इनका जन्म ध्रुवीय उच्च वायुदाब से होता है। ये पवनें व्यापारिक पवनों की दिशा में बहती हैं। ये पवनें उत्तरी गोलार्द्ध में उत्तर दक्षिण से दक्षिण पश्चिम और दक्षिण गोलार्द्ध में दक्षिण पूर्व से उत्तर पश्चिम की ओर प्रवावित होती हैं। इन पवनों के कारण सभी महाद्वीपों के पूर्वी तटीय भाग पर वर्षा होती है। ये पवनें जब गर्म पछुआ पवनें से मिलती हैं, तो ध्रुवीय वाताग्र का निर्माण होता है। इन पवनों से शीतोष्ण चक्रवात की उत्पत्ति होती है।

No.2.-स्थानीय पवनें- स्थानीय पवनों की उत्पत्ति एक स्थानीय स्तर पर तापमान और वायुदाब में परिवर्तन होने के कारण होती है। ब्लीजार्ड, बोरा, मिस्ट्रेल, चिनूक, फोन, सिराको, आदि कुछ प्रमुख स्थानीय पवने हैं, जो परिसंचरण प्रणाली के रूप में उत्पन्न होती हैं।इन पवनों की उत्पत्ति एक स्थानीय स्तर पर तापमान और वायुदाब में परिवर्तन होने के कारण होती है।

पवन की परिभाषा एवं प्रकार:-

No.3. मौसमी पवनें एवं दैनिक पवनें- मौसमी पवनें एवं दैनिक पवनें ग्रीष्म, शीत, वर्षा ऋतु जैसी विशेष ऋतु में उत्पन्न होती हैं। मौसम बदलने पर इस प्रकार की पवने समाप्त हो जाती हैं। इन पवनों का क्षेत्र बहुत सीमित होता है। मौसमी पवनों का जन्म दिन और रात के तापमान में अंतर के कारण होता है। दैनिक पवने भी एक प्रकार की मौसमी पवनें ही हैं। इन पवनों की उत्पत्ति भी दिन और रात के तापमान में अंतर के कारण होती है। ये पवने दो प्रकार की होती हैं-घाटी एवं पर्वतीय समीर और समुद्री एवं स्थलीय समीर। समुद्री एवं स्थलीय समीर समुद्र तटीय क्षेत्रों में दिन और रात में प्रवाहित होती हैं, जबकि घाटी और पर्वतीय समीर पर्वतीय क्षेत्रों में पहाड़ों के ऊपरी भाग में बहती है।

No.4.जेट वायुधारा- जेट वायुधारा पृथ्वी के वायुमंडल में क्षोभमंडल में तीव्र गति से बहने वाली पवने होती हैं जो पश्चिम से पूरब दिशा में बहती हैं। इन्हें जेट स्ट्रीम भी कहते हैं। ये पवनें तीन प्रकार की होती हैं- ध्रुवीय जेट स्ट्रीम, ऊष्ण पूर्वी जेट स्ट्रीम और उपोष्ण पछुआ जेट स्ट्रीम । इस प्रकार की ये पवनें पृथ्वी के धरातल से 6 से 14 किलोमीटर की ऊंचाई पर लहरदार रूप में चलती हैं। इन पवनों की सामान्य गति 340 से 380 किलोमीटर प्रति घंटा होती है।

पवन की परिभाषा एवं प्रकार:-

पवन को प्रभावित करने वाले कारक- पवन को निम्नलिखित तीन बातें प्रभावित करती हैं-

>1). पवनें सौर विकिरण के प्रभाव से असमान रूप से गरम होती हैं, जिससे पवन के रूप में वायुमंडलीय गति के लिए आवश्यक ऊर्जा प्राप्त होती है। इसी परिणामी दाबप्रवणता के कारण हवा के कण अधिक दबाव से कम दबाव की ओर जाने की प्रवृत्त होते हैं। अत: दाबप्रवणता की अधिकता हवा को प्रबल करती है।

>2). पृथ्वी के घूर्णन के कारण चलती हवा पर कोरियोलिस बल कार्य करता है।यह पवन को प्रभावित करने वाला दूसरा महत्वपूर्ण कारक है। यह कोरियोलिस बल स्पष्ट कारणों से उत्तरी गोलार्ध में वायुकणों को दाईं ओर तथा दक्षिणी गोलार्ध में बाईं ओर विचलित करता है। इस कोरियोलिस बल का मान ध्रुवों पर अधिकतम और विषुवत् रेखा पर शून्य होता है।

पवन की परिभाषा एवं प्रकार:-

>3). पवन को प्रभावित करने वाला तीसरा कारक अपकेंद्री बल है, जो चक्रवातों और प्रतिचक्रवातों से उत्पन्न होता है।

समय एवं स्थान के अनुसार दाब, ताप, आर्द्रता तथा घनत्व वितरण में परिवर्तन, ऊँचाई के अनुसार विचालक बलों में अंतर, चक्रवात तथा प्रतिचक्रवात जैसी परिवर्तनशील दबाव पद्धतियों से होने वाले अपकेंद्री बलों में अंतर एवं घर्षण बलों में परिवर्तन आदि कारणों से पवन में अंतर हो जाता है।