बिलस्य वाणी न कदापि में श्रुता - SSC GK

बिलस्य वाणी न कदापि में श्रुता

|
Facebook
बिलस्य वाणी न कदापि में श्रुता
---Advertisement---

बिलस्य वाणी न कदापि में श्रुता- इस आर्टिकल में आज SSCGK आपसे बिलस्य वाणी न कदापि में श्रुता के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे। इससे पहले आर्टिकल में आप सुभाषितानि के बारे में विस्तार से पढ़ चुके हैं।

बिलस्य वाणी न कदापि में श्रुता:-

प्रस्तुत पाठ विष्णुशर्मा द्वारा रचित ‘पञ्चतन्त्र’ के ‘काकोलूकीय’ नामक तृतीय खण्ड से अवतरित है। विष्णुशर्मा  ने इस ग्रन्थ की रचना  राजा अमरशक्ति के मूर्ख पुत्रों को नीतिशास्त्र की शिक्षा देने के लिए की थी।

पाठ की व्याख्या-

No.1. कस्मिंश्चित् वने खरनखरः नाम सिंहः प्रतिवसति स्म। सः कदाचित् इतस्तत: परिभ्रमन् क्षुधातः न किञ्चिदपि आहारं प्राप्तवान्। ततः सूर्यास्तसमये एकां महतीं गुहां दृष्ट्वा सः अचिन्तयत्-“नूनम् एतस्यां गुहायां रात्रौ कोऽपि जीवः आगच्छति। अतः अत्रैव निगूढो भूत्वा तिष्ठामि” इति।

सरलार्थ-  किसी वन में खरनखर नामक सिंह रहता था। एक बार भूख से व्याकुल होकर इधर-उधर घूमते हुए उसे कुछ भी भोजन प्राप्त न हुआ। तब सूर्य के अस्त होने के समय एक विशाल गुफा को देखकर वह सोचने लगा- “निश्चित रूप से इस गुफा में रात में कोई प्राणी आता है। इसलिए यहाँ पर ही छिप कर बैठता हूँ।”

कठिन शब्दों के अर्थ-

कस्मिंश्चित्– किसी

प्रतिवसति स्म– रहता था

इतस्ततः– इधर-उधर

क्षुधार्तः– भूख से व्याकुल

किञ्चिदपि– कुछ भी

महतीम्- विशाल

दृष्ट्वा– देखकर

नूनम्- निश्चित ही

परिभ्रमन्– घूमता हुआ

आहारम्– भोजन

गुहाम्- गुफा को

अचिन्तयत्- सोचा

एतस्याम्- इसमें

निगूढो भूत्वा -छिप कर

कोऽपि-कोई भी

आगच्छति-आता है

अत्रैव-यहाँ पर ही

तिष्ठामि- बैठ जाता हूँ

BILASYA VAANI KDAAPI N MEIN SHRUTA-

No.2.  एतस्मिन् अन्तरे गुहायाः स्वामी दधिपुच्छः नामकः शृगालः समागच्छत्। स च यावत् पश्यति तावत् सिंहपदपद्धतिः गुहायां प्रविष्टा दृश्यते, न च बहिरागता। शृगालः अचिन्तयत्-“अहो विनष्टोऽस्मि। नूनम् अस्मिन् बिले सिंहः अस्तीति तर्कयामि। तत् किं करवाणि?”

सरलार्थ- इसी बीच गुफा का मालिक दधिपुच्छ नामक गीदड़ आजाता है | जैसे ही वह देखता है, वैसे ही शेर के पंजों के निशान गुफा में प्रविष्ट होते हुए के तो दिखाई दिए तथा गुफा से बाहर आने के निशान नजर  नहीं आए। गीदड़ सोचने लगा- “अरे, मैं मर गया। अवश्य ही, इस बिल में शेर है- ऐसा मैं मानता हूँ। तो क्या करूँ?”

कठिन शब्दों के अर्थ-

एतस्मिन् अन्तरे- इसी दौरान

समागच्छत्- आ गया

पश्यति- देखता है।

सिंहपदपद्धतिः – सिंह के पैरों के।

प्रविष्टा- प्रविष्ट हुई

बहिः -बाहर।

अचिन्तयत्- सोचने लगा।

नूनम्– अवश्य ही।

गुहायाः- गुफा का

शृगालः– गीदड़

यावत्- ज्यों ही।

तावत्- त्यों ही।

पद्धतिः- निशान।

तर्कयामि- सोचता हूँ।

बिलस्य वाणी न कदापि में श्रुता-

No.3. एवं विचिन्त्य दूरस्थः रवं कर्तुमारब्धः-‘भो बिल! भो बिल! किं न स्मरसि, यन्मया त्वया सह समयः कृतोऽस्ति यत् यदाहं बाह्यतः प्रत्यागमिष्यामि तदा त्वं माम् आकारयिष्यसि? यदि त्वं मां न आह्वयसि तर्हि अहं द्वितीयं बिलं यास्यामि इति।”

सरलार्थ- ऐसा विचार कर दूर खड़े होकर आवाज करना शुरू किया- “अरे बिल! अरे बिल! क्या तुम्हें याद नहीं है, कि मैंने तुम्हारे साथ समझौता किया है कि जब मैं बाहर से लौटूंगा तब तुम मुझे बुलाओगे? यदि तुम मुझे नहीं बुलाते हो तो मैं दूसरे बिल में चला जाऊँगा।”

कठिन शब्दों के अर्थ-

दूरस्थ:- दूर खड़ा होकर।

कर्तुम्- करने के लिए।

स्मरसि- तुम याद करते हो

यदा- जब।

विचिन्त्य- सोच कर।

रवम्- आवाज, शब्द।

आरब्धः- आरम्भ किया।

समयः- प्रतिज्ञा, समझौता।

बाह्यतः- बाहर से।

प्रत्यागमिष्यामि- लौटूंगा।

आकारयिष्यसि- बुलाओगे।

आह्वयसि- बुलाती हो।

यास्यामि- चला जाऊँगा।

बिलस्य वाणी न कदापि में श्रुता-

No.4. अथ एतच्छ्रुत्वा सिंहः अचिन्तयत्-“नूनमेषा गुहा स्वामिनः सदा समाह्वानं करोति। परन्तु मद्भयात् न किञ्चित् वदति।”

सरलार्थ-  इसके बाद यह सुनकर सिंह सोचने लगा-“अवश्य ही यह गुफा अपने स्वामी को सदा बुलाती होगी; परन्तु मेरे डर से (आज) कुछ नहीं बोल रही है।”

अथवा साध्विदम् उच्यते –

भयसन्त्रस्तमनसां हस्तपादादिकाः क्रियाः।

प्रवर्तन्ते न वाणी च वेपथुश्चाधिको भवेत्।।

अन्वयः –

भयसन्त्रस्तमनसां हस्तपादादिकाः क्रियाः वाणी च न प्रवर्तन्ते, वेपथुः च अधिकः भवेत्।

सरलार्थ- अथवा यह उचित ही कहा है –

भय से डरे हुए मन वाले (लोगों) के हाथ व पैरों से सम्बन्धित क्रियाएँ तथा वाणी ठीक से प्रवृत्त नहीं हुआ करती हैं तथा कम्पन अधिक होता है।

कठिन शब्दों के अर्थ-

अथ- इसके बाद।

श्रुत्वा- सुनकर।

स्वामिनः– स्वामी का

वेपथुः- कम्पन

समाह्वानम्- आह्वान

किञ्चित्- कुछ।

साधु- उचित।

प्रवर्तन्ते- प्रवृत्त होती हैं।

बिलस्य वाणी न कदापि में श्रुता-

No.5. तदहम् अस्य आह्वानं करोमि। एवं सः बिले प्रविश्य मे भोज्यं भविष्यति। इत्थं विचार्य सिंहः सहसा शृगालस्य आह्वानमकरोत्। सिंहस्य उच्चगर्जनप्रतिध्वनिना सा गुहा उच्चैः शृगालम् आह्वयत्। अनेन अन्येऽपि पशवः भयभीताः अभवन्।

सरलार्थ- तो मैं इसे बुलाता हूँ। इस प्रकार वह बिल में घुस कर मेरा भोजन बन जाएगा। इस प्रकार विचार करके सिंह ने एकाएक गीदड़ को बुलाया। सिंह की ऊँची गर्जना (दहाड़) की गूंज से उस गुफा ने जोर से गीदड़ को बुलाया। इससे अन्य पशु भी भयभीत हो गए।

शृगालोऽपि ततः दूरं पलायमानः इममपठत्

अनागतं यः कुरुते स शोभते

स शोच्यते यो न करोत्यनागतम्।

वनेऽत्र संस्थस्य समागता जरा

बिलस्य वाणी न कदापि मे श्रुता॥

अन्वयः- यः अनागतं कुरुते, सः शोभते। यो अनागतं न करोति, सः शोच्यते। अत्र वने संस्थस्य (मे) जरा समागता, (परम्) कदापि बिलस्य वाणी मे न श्रुता।

गीदड़ भी उससे दूर भागता हुआ इस श्लोक को पढ़ने लगा

सरलार्थ –

जो व्यक्ति न आए हुए दुःख का प्रतीकार करता है, वह शोभा पाता है। जो न आए हुए दुःख का प्रतीकार नहीं करता है, वह चिन्तनीय होता है। यहाँ वन में रहते हुए मैं बूढ़ा हो गया हूँ, परन्तु कभी भी मैंने बिल की आवाज नहीं सुनी।

भावार्थ-

जो व्यक्ति भविष्य में आने वाली संभावित विपत्ति के निराकरण का उपाय करता है, वह संसार में शोभा पाता है। जो आने वाली आपदा से बचाव का उपाय नहीं करता है, वह दु:खी होता है। यहाँ वन में रहते हुए मेरा बुढ़ापा आ गया, परंतु मैंने कभी भी बिल की आवाज नहीं सुनी।

कठिन शब्दों के अर्थ-

अनागतम् = न आने वाले (दुःख) को।

कुरुते = करता है।

शोच्यते = चिन्तनीय होता है।

संस्थस्य = रहते हुए

जरा = बुढ़ापा

मे = मैंने

यः = जो।

शोभते = शोभा पाता है।

वनेऽत्र = यहाँ जंगल में।

समागता = (प्राप्त) हो गई है।

कदापि = कभी भी।

श्रुता =सुनी।

Jagminder Singh

My name is Jagminder Singh and I like to share knowledge and help.